मेरी भावना
अहंकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ ।
देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईष्र्या-भाव धरूँ॥
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ।
बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ॥ 4॥
मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे।
दीन-दुखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे॥
दुर्जन क्रूर - कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे।
साम्यभाव रक्खूँ मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे॥ 5॥
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